मतीरे की राड़ - एक मतीरे ( तरबूज ) की लिए हुआ अनोखा युद्ध और सैकड़ों लोग मारे गए


धन - दौलत और जमीन के लिए दुनिया भर में कई युद्ध हुए है लेकिन हमारे देश में केवल एक मतीरे ( तरबूज ) के लिए दो रियासतों के बीच तलवारें खींच गयी थी.  इतिहास में इसे "मतीरे की राड़" कहा गया.

मतीरे की राड़ का युद्ध नागौर के अमरसिंह व बीकानेर के कर्णसिंह की सेना के बीच में 1644 ई, में हुआ था. लेकिन दोनों ही राजा इस युद्ध से अनजान और अन्य दूर स्थान पर थे. यह दुनिया का एक मात्र ऐसा युद्ध है जो कि केवल एक फल के लिए हुआ था.

दरअसल बीकानेर रियासत का सीलवा गांव और नागौर रियासत का जाखणियां गांव जो की एक दूसरे के समानांतर दो राज्यों की सीमा पर स्तिथ थे. एक मतीरे की बेल बीकानेर रियासत के गाँव में उगी और सीमा पार कर नागौर रियासत के गाँव में फ़ैल गयी. उस पर एक मतीरा यानि तरबूज लग गया.

मतीरे को पाने के लिए एक पक्ष का दावा था कि बेल हमारे राज्य में उगी है इसलिए मतीरे पर बीकानेर का अधिकार है. वही  दूसरे पक्ष का दावा था फ़ल हमारी ज़मीन पर पड़ा है इसलिए इस पर हमारा अधिकार है. दोनों रियासतों के राजाओं ने पत्र भेज मुगल दरबार से इस मामले में दखल देने और सुलझाने के लिए आग्रह किया क्योंकि दोनों रियासते मुग़ल साम्राज्य की अधीनता स्वीकार चुकी थी.

उस समय बीकानेर के शासक राजा करणसिंह मुगलों के लिए दक्षिण अभियान पर गये हुए थे. जबकि नागौर के शासक राव अमरसिंह थे. राव अमरसिंह भी मुग़ल साम्राज्य की सेवा में थे. राव अमरसिंह ने आगरा लौटते ही बादशाह को इसकी शिकायत की तो राजा करणसिंह ने सलावतखां बख्शी को पत्र लिखा और बीकानेर की पैरवी करने को कहा था.

दिल्ली के मुग़ल दरबार में मतीरे के बारे में कुछ फैसला होता उससे पहले ही दोनों रियासतों की सेनाओं के बीच युद्ध शुरू हो गया. इस युद्ध में दोनों पक्ष के सैकड़ों लोग मारे गए और आखिरकार बीकानेर की सेना ने युद्ध के साथ ही मतीरे को भी जीत लिया. सैकड़ों सैनिकों को गंवा देने के बाद बीकानेर के लोगों ने इस मतीरे का स्वाद चखा.

इस युद्ध में नागौर की सेना का नेतृत्व सिंघवी सुखमल ने किया जबकि बीकानेर की सेना का नेतृत्व रामचंद्र मुखिया ने किया था. युद्ध में नागौर की हार हुई. इस ऐतिहासिक घटना को मारवाड़ में मतीरे की रार (युद्ध ) कहा जाता है.