आरएसएस ने भाजपा को छोड़ कांग्रेस का साथ दिया ; आडवाणी ने कहा कि “ये लोकसभा नहीं शोकसभा का चुनाव”


साल 1984 का वो लोकसभा चुनाव जिसमें कांग्रेस ने रिकॉर्ड तोड़ सीटें जीती और आज की भाजपा मात्र 2 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से माधवराव सिंधिया से चुनाव हार गए और पार्टी ने कई बड़े नेता भी चुनाव हार गए थे. नतीजे आने के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि “ये लोकसभा नहीं शोकसभा का चुनाव था”

दरअसल 30 अक्टूबर 1984 को ओड़िशा के भुवनेश्वर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए अपने भाषण में इंदिरा गाँधी ने अपनी मौत का जिक्र करते हुए कहा कि “आज मैं यहाँ हूँ.. कल  शायद नहीं रहूँ, लेकिन जब मैं मरूंगी तो मेरे खून का एक एक कतरा भारत को मजबूत करने में लगेगा” और अगले ही दिन 31 अक्टूबर 1984 की सुबह प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने गोलियों से भूनकर हत्या कर दी. इंदिरा गाँधी के एक बेटे संजय गाँधी की मौत पहले ही हवाई दुर्घटना में हो चुकी थी इसलिए इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गाँधी नए प्रधानमंत्री बने.  

इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए दिसम्बर में  लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने नए नेता राजीव गाँधी के नेतृत्व में 523 में से 400 से भी अधिक सीटों पर जीत हासिल की थी. राजीव गाँधी ने पण्डित जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गाँधी से अधिक बहुमत हासिल किया. ये इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर का नतीजा था. वही आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी के टूटने के बाद पुराने जनसंघ के स्थान पर नई बनी भारतीय जनता पार्टी का यह पहला चुनाव था और पार्टी को इस चुनाव में मात्र दो सीटें मिली थी.

भाजपा की इस तरह बुरी हार की कल्पना शायद पार्टी नेताओं को नहीं थी लेकिन भाजपा की बुरी हार के पीछे इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के अलावा आरएसएस का भी हाथ था. क्योंकि इस चुनाव में आरएसएस ने भाजपा को छोडकर कांग्रेस का समर्थन किया था. ये वो चुनाव था जब 1984 के सिख दंगो के बाद कांग्रेस भाजपा को हिन्दू विरोधी बता रही थी और वही नई उदारवादी भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में खुद को धर्म से दूर रख कर वाजपेयी की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास कर रही थी. चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने भाजपा पर ये आरोप लगाया कि सिख उग्रवादियों से सम्बन्ध था.

दरअसल 1984 के चुनाव में भाजपा और आरएसएस के संबंधो में तल्खियाँ बढ़ गई थी क्योंकि नई भाजपा आरएसएस की अनदेखी कर रही थी. वही कांग्रेस उस वक्त हिन्दू छवि को बढ़ावा दे रही थी. राजीव गाँधी चुनावी रैलियों में अपनी माँ इंदिरा गाँधी की तरह आरएसएस पर कड़ा प्रहार करने से बचते रहे. वाजपेयी के पुराने प्रतिद्वंद्वी कभी जनसंघ के वरिष्ठ नेता रहे नाना जी देशमुख भी खुलकर कांग्रेस का समर्थन कर रहे थे. कांग्रेस ने इसके लिए नाना जी देशमुख को धन्यवाद दिया.

पत्रकार रशीद किदवई के मुताबिक चुनाव से पहले तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहब देवरस और राजीव गाँधी के बीच एक गुप्त बैठक भी हुई थी और उसी के नतीजे के रूप में आरएसएस ने चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करने का फ़ैसला किया था. ये वो एकमात्र चुनाव था जिसमें आरएसएस ने भाजपा के होते हुए कांग्रेस का समर्थन किया था लेकिन भाजपा के नेता इस बात को हमेशा ही अस्वीकार करते रहे है.

1984 के परिणाम के बाद कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को ये समझ आ गया कि संघ को दरकिनार नहीं किया जा सकता है इसलिए बाद के किसी भी चुनाव में आडवाणी संघ का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे.

1984 के बाद कांग्रेस को दोबारा कभी ऐसा बहुमत हासिल नहीं कर पाई और राजीव गाँधी की हत्या के बाद पार्टी में हुई टूट से कांग्रेस धीरे धीरे कमजोर होती चली गई और इसके उलट भाजपा पहले वाजपेयी और फिर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारी बहुमत के साथ सत्ता में काबिज हो गई.